सिरमौर जनपद के शिलाई व रेणुका क्षेत्र में हज़ारों बकरे कटने के साथ ही शनिवार 13 जनवरी से माघी त्योहार की शुरुआत हो जायेगी। इस दिन उतरायेंटी के रुप में इस पारंपरिक माघी त्योहार को लोग बड़े स्तर पर मनाते हैं। इसके पीछे लोगों की पौराणिक मान्यता भी जुड़ी है। पुराणों के अनुसार उत्तर दिशा में देवताओं तथा दक्षिण दिशा में दैत्यों का वास बताया जाता है। किसी वजह से सूर्य बजाए उत्तर के दक्षिण दिशा में दैत्यों के चंगुल में फंस जाते हैं। उतराएंटी के दिन सूर्य दैत्यों के चंगुल से मुक्त होकर उत्तर दिशा की ओर रुख करते हैं। इसी खुशी के उपलक्ष में उतराएंटी का यह माघी त्योहार मनाया जाता है। उतरायेंटी के दिन से ही सूर्य पूर्वोत्तर की ओर उगता हुआ दिखाई देने लगेगा। इस त्योहार को मनाने में लोगों की एक और मान्यता भी जुड़ी है। उनका यह भी तर्क है कि ठिठुरती ठंड में मनुष्य की शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है। अपनी शारीरिक क्षमता को बरकरार रखने के लिए मांस को पोषक मानते हुए इसका उपयोग करना जरूरी माना गया है ताकि सर्दियों में भी शरीर की शक्ति यथावत बनी रहे।
शिलाई व रेणुका क्षेत्र में उतराएंटी के दिन हज़ारों बकरे काटे जाते हैं। शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहां बकरे को नहीं काटा जाता हो। आंकड़ों की माने तो शिलाई क्षेत्र में करीब 12000 तथा रेणुका क्षेत्र में लगभग 16000 के आसपास बकरे काटे जाते हैं। जिसमें औसतन कीमत करीब 42 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान हैं। गरीब वर्ग के लोग भी यथासंभव इस त्योहार को मनाने में पीछे नहीं रहते हैं।
माघी का यह त्योहार महीने भर चलता है। बकरे के मांस के छोटे छोटे टुकड़े करके किसी रस्सी से बांध कर हवादार कमरे में टांग दिया जाता है, ताकि खराब न हो और जल्दी सूख जाए। पूरे महीने मेहमानों व रिश्तेदारों के आवागमन का दौर चलता है, इनके लिए बकरे का सूखा मांस पका कर परोसा जाता है जिसे मेहमान बड़े चाव से खाते हैं। मेहमान नवाजी में कोई कसर शेष न रहे इसलिए शराब के शौकीन मेहमानों को मदिरा भी परोसी जाती है। इस दौरान पहाड़ी लोक गीतों के साथ नाच गाने का दौर भी चलता है। पहाड़ी लोक गीतों से गांवों की घाटियां भी संगीतमय हो जाती है।
समय बदलता रहता है। समय के साथ-साथ शिक्षित वर्ग के चलते इस त्योहार को मनाने में अब कमी भी देखने को मिल रही है। जागरूक युवा शिक्षित वर्ग इस तरह बकरों के काटे जाने से परहेज भी करने लगे हैं। शिलाई क्षेत्र में यह कमी छः फीसदी और रेणुका क्षेत्र में अठारह फ़ीसदी की कमी आई है जहां बकरे को नहीं काटा जाता।
यह उचित भी है इस तरह बेवजह हजारों बेजुबान बकरों की जान भी बच जाएगी और इस पारंपरिक त्योहार में होने वाले करोड़ों रुपए के निरर्थक खर्च से भी लोगों को छुटकारा मिल जाएगा। _बी. एन. शर्मा “पंकज”