लापता लेडीज: महिलाओं के मुद्दों और पैट्रियाकी पर अब तक कई फिल्में बनीं हैं। खास तौर पर फीमेल डायरेक्टर्स ने औरत की दशा और दिशा पर अपनी फिल्मों द्वारा कई बार बहस चलाई है, मगर निर्देशक किरण राव अपनी फिल्म ‘लापता लेडीज’ में औरतों को लेकर पितृ सत्तात्मक सोच, लैंगिक असमानता, शिक्षा, दहेज प्रथा, आत्मनिर्भरता, घरेलू हिंसा, हीनता जैसे तमाम मुद्दों को परत दर परत उधेड़ती जाती हैं।
‘लापता लेडीज’ की कहानी
कहानी का बैकड्रॉप आज से तकरीबन दो दशक पहले के ग्रामीण इलाके का है, जो कहीं मध्य प्रदेश में काल्पनिक निर्मल प्रदेश का है। दीपक अपनी नई ब्याहता फूल को घर लिवाने आया है। शादियों का मौसम जोरों पर है, तो हर जगह नई-नई दुल्हनें लाल जोड़ों में घूंघट ओढ़े हुए दिखती हैं। दीपक और फूल जिस ट्रेन में चढ़ते हैं, उसी में शादी का एक और जोड़ा भी है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है, जब दीपक को घर आकर पता चलता है कि उसकी दुल्हन बदल गई है। वह लंबे घूंघट के कंफ्यूजन में किसी और की दुल्हन पुष्पा को घर ले आया है।
1 | मूवी रिव्यू | लापता लेडीज |
2 | कहानी | लापता लेडीज |
3 | ऐक्टर | स्पर्श श्रीवास्तव,नीतांशी गोयल,प्रतिभा रांटा,रवि किशन,सतेंद्र सोनी,दुर्गेश कुमार |
4 | डायरेक्टर | किरण राव |
5 | श्रेणी | Hindi, Drama |
6 | अवधि | 2 Hrs 2 Min |
लापता लेडीज: फूल किसी तरह खुद को दूसरे दूल्हे के घर जाने से बचा लेती है और स्टेशन पर ही रह जाती है। यहां दीपक जोर-शोर से फूल को ढूंढ रहा है और वो पुलिस थाने जाकर दारोगा के पास रिपोर्ट भी दर्ज कराता है, तो वहां पुष्पा का पति पुष्पा पर गहने चोरी कर भाग जाने की रिपोर्ट दर्ज करा देता है। तहकीकात में पुलिस को पुष्पा पर शक होता है कि वह किसी गिरोह का हिस्सा है। इन तमाम सवालों का जवाब आपको फिल्म देखने के बाद मिलेगा।
‘धोबी घाट’ जैसी फिल्म का निर्देशन कर चुकी किरण ने अपनी फिल्म के जरिए कई मुद्दों को उठाया है, मगर उन्होंने फिल्म को कहीं भी प्रीची नहीं होने दिया है। जिस घूंघट के कारण दुल्हनों की अदला-बदली हुई है, वो भी एक तरह से पितृ सत्तात्मक सोच पर प्रहार करता है और इसी पॉइंट पर वो फिल्म का मिजाज सेट कर देती हैं।
ग्रामीण परिदृश्य में कई महिला पात्र हैं और हर पात्र के जरिए वे एक मुद्दे को चिन्हित करती हैं, जैसे अनपढ़ फूल ब्याह करके ही खुश है, मगर स्टेशन पर रहते हुए उसे अपनी कुकिंग स्किल का पता चलता है और वो खुद को आत्मनिर्भर बनाती है। दूसरी तरफ पुष्पा है, जो आगे पढ़कर कुछ बनना चाहती है। स्टेशन पर चाय की दुकान चलाने वाली मंजू ने घरेलू हिंसा और नाकारा पति को नकार कर अकेले ही अपनी जिंदगी जीने का फैसला किया है। दीपक की भाभी का किरदार एक ऐसी महिला का है, जो लंबे अरसे से परदेस में रहने वाले पति की एक ड्राइंग बनाकर उसके इंतजार में दिन काट रही है।
किरण इस बात पर भी गहरा कटाक्ष करती हैं कि समाज की ‘इज्जतदार लड़की’ सबसे बड़ा फ्रॉड है, वो इसलिए कि इस तमगे के कारण वह कभी सवाल नहीं कर पाती। लेकिन किरण के निर्देशन की खूबी ये है कि इतने सारे मुद्दों के साथ फिल्म हेवी नहीं होती। खूब मनोरंजन करती हैं। हंसाती हैं, रुलाती हैं। फिल्म औरतों को आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ उनके सपनों को पूरा करने की सोच पर जोर देती हैं।
‘लापता लेडीज’ की लिखावट काफी दिलचस्प है। बिप्लव गोस्वामी की कहानी, स्नेहा देसाई की पटकथा और दिव्य निधि शर्मा के संवादों में चुटीलापन है। कास्टिंग फिल्म का एक और मजबूत पक्ष है, जिसे रोमिल मोदी ने बखूबी निभाया है। सिनेमेटोग्राफर नौलखा ने काबिल-ए-तारीफ काम किया है। संगीत की बात करें, तो संगीतकार राम संपत ने विषय के अनुरूप म्यूजिक दिया है।
कलाकारों का मजबूत अभिनय पक्ष सोने पर सुहागा का काम करता है। लीड कास्ट नितांशी गोयल, स्पर्श श्रीवास्तव और प्रतिभा रांटा छोटे पर्दे पर अभिनय कर चुके हैं, मगर फिल्म के बड़े पर्दे पर डेब्यू करने वाले ये कलाकर अपने-अपने अहम किरदारों को बहुत खूबसूरती से जी गए हैं। फूल के रूप में नितांशी ने मासूमियत और भोलेपन को बनाए रखा है, तो प्रतिभा अपने तेज-तर्रार और बगावती अंदाज में खूब जमती हैं। पत्नी की खोज में बौराए दीपक के किरदार को स्पर्श ने मजबूती से अंजाम दिया है। दारोगा के रूप में रवि किशन की खास अभिनय अदायगी दिल जीत लेती है। वो कहानी में मनोरंजन के डोज को बनाए रखते हैं।