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मूवी रिव्यू: भक्षक

By Sushama Chauhan

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‘भक्षक’ की कहानी

भक्षक: फिल्‍म की कहानी में एक स्वतंत्र टीवी रिपोर्टर वैशाली सिंह और उसका अकेला सहयोगी भास्कर है, जो सच के पीछे पड़े हैं। दोनों बिहार में मानव तस्‍करी के गिरोह का पर्दाफाश करने में जुटे हुए हैं। ये दोनों मुनव्वरपुर में बेहद ताकतवर शख्‍स बंसी साहू के चंगुल से नाबालिग अनाथ लड़कियों को बचाने की कोश‍िश कर रहे हैं। राज्य की कानून व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। कहीं से कोई मदद भी नहीं है, तो क्या दो सामान्य लोग राजनीतिक डर, धमकियों और सामाजिक दबाव का सामना करते हुए अपने मकसद में कामयाब हो पाएंगे? डायरेक्‍टर पुलकित की ‘भक्षक’ इसी के इर्द-गिर्द घूमती है।

मूवी रिव्यू: भक्षक

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‘भक्षक’ मूवी रिव्‍यू

पुलकित ने इस फिल्‍म के जरिए छोटे शहरों के उन हीरोज के साहस की कहानी का जश्‍न मनाने की कोश‍िश की है, जो समय की धूल के साथ कहीं खो जाते हैं। उनके गढ़े किरदारों में एक भोलापन जरूर है, लेकिन वो सत्ता और उसकी ताकत के सामने सच बोलने का साहस करते हैं। वह सिकुड़ती सोशल मीडिया दुनिया में बढ़ती उदासीनता पर भी बात करते हैं।

फिल्‍म का विषय महत्वपूर्ण है और मुख्य किरदारों ने बड़ी ईमानदारी से इसके साथ भी न्‍याय किया है। लेकिन पर्दे पर यह 90 के दशक का मेलोड्रामैटिक हैंगओवर ज्‍यादा लगता है। फिल्म में हर किसी की जुबान पर बंसी साहू का नाम है। कम से कम हम पूरी फिल्‍म में इस नाम को 100 बार सुनते हैं, लेकिन वह उतना खतरनाक या प्रभावशाली नहीं लगता, जितना उसके बारे में बखान किया गया है। अजीब बात यह भी है कि वह इतना ताकतवर होकर भी हर वक्‍त हर किसी की पहुंच में है।

‘भक्षक’ एक इनवेस्‍ट‍िगेटिव-क्राइम थ्रिलर है, लेकिन इसमें ना तो रोमांच है और ना ही खोजबीन। इस कारण यह फिल्म थकाऊ और थोड़ी बोरिंग बन जाती है। कहानी कहने में भी जल्‍दबाजी की गई है, यहां तक कि डर का भाव भी ठीक से उभर नहीं पाता है। जबकि ये सारी चीजें, इस तरह की फिल्‍म के लिए सबसे अहम तत्‍व हैं। पूरी फिल्‍म में शायद ही ऐसा कोई मौका आता है, जब आप उनसे भावनात्‍मक रूप से जुड़ पाते हैं। वैशाली के पति के किरदार को अपनी हिचकिचाहट जाहिर करने लिए स्‍क्रीन पर ज्‍यादा वक्‍त नहीं दिया गया है।

फिल्‍म में एक सीन है, जहां एक महिला सुपरकॉप, वैशाली से कहती है, ‘मेरे हाथ बंधे हुए हैं। आप मुझे सबूत दीजिए और मैं गिरफ्तारी कर लूंगी।’ यह बात एक पुलिस अध‍िकारी कह रही है, जिसका काम ही सबूत इकट्ठा करना है, लेकिन वह भी पत्रकार भरोसे है। जाहिर तौर पर ऐसे वक्‍त में आप खुद से भी सवाल करते हैं कि क्‍या सिर्फ पत्रकारों पर दोष मढ़ने से काम चल जाएगा, क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया है और न ही उनके पास वर्दी की ताकत है।

इंडस्‍ट्री में भूमि पेडनेकर उन भरोसेमंद कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने लगातार मजबूत महिला किरदार निभाए हैं। मुंबई की मराठी लड़की का उत्तर भारतीय लहजा फिल्‍म में प्रभावित करता है। उनका किरदार निडर होकर पितृसत्ता से लड़ता है। संजय मिश्रा फिल्‍म में खो से जाते हैं, जबकि ‘सीआईडी’ फेम आदित्य श्रीवास्तव एक दुष्ट विलेन के रोल में छाप नहीं छोड़ पाते हैं। साई ताम्हणकर एक खास भूमिका में हैं, लेकिन उनके किरदार को ठीक से गढ़ा नहीं गया है।

कुल मिलाकर ‘भक्षक’ न्याय के लिए एक ऐसी लड़ाई बनकर रह जाती है, जो बड़ी आसान सी लगती है। आप फिल्‍म देखते हुए फंसी हुई लड़कियों की दुर्दशा को तो महसूस करते हैं, लेकिन फिल्म आपकी भूख को ना तो बढ़ा पाती है और ना ही मिटा पाती है।

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