“क्या भारत बनेगा अमेरिका का लाभार्थी? अडानी जांच, बिड़ला सम्मान और मोदी सरकार की अग्निपरीक्षा !”

By Sandhya Kashyap

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नमस्कार दोस्तों।

आज हम बात करेंगे एक ऐसे crossroads की… जहाँ पर खड़ा है भारत। और सामने है एक गहरी खाई—जिसमें लिखा है: “अमेरिका फर्स्ट”। क्या ये संभव है कि भारत रूस से अपने दशक पुराने रक्षा संबंध तोड़ दे—सिर्फ इसलिए क्योंकि अमेरिका को ये रास नहीं आ रहा?

क्या ये भी संभव है कि भारत ब्रिक्स जैसे मंच से दूरी बना ले… उसी ब्रिक्स से जिसकी नींव भारत ने ही रखी थी? क्या ये भी मुमकिन है कि भारत के कॉर्पोरेट सेक्टर को अब अपने फैसले दिल्ली से नहीं, बल्कि वॉशिंगटन से मिलने लगें? यही नहीं, क्या अब छात्र ग्रीन कार्ड के सपने नहीं बल्कि गोल्ड कार्ड खरीदने के लिए डॉलर में बोली लगाएंगे? ये तमाम सवाल हवा में नहीं हैं। ये उठे हैं अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक के उस बयान से, जिसमें भारत के सामने एक तरह से दो टूक अल्टीमेटम दिया गया। 

 रूस से रिश्ते – अमेरिका की चुभन

भारत के कुल हथियार आयात का 50% रूस से होता है और यही अमेरिका की आँखों में चुभता है। हॉवर्ड लुटनिक ने साफ कहा, “अगर आप अपने टैंक, मिसाइल्स, रडार रूस से खरीदते हैं, तो अमेरिका के साथ गहरी दोस्ती की उम्मीद मत रखिए।” पर क्या ऐसा मुमकिन है कि भारत आज रूस से नाता तोड़ दे?  नहीं। क्योंकि रक्षा संबंध सिर्फ कारोबार नहीं, रणनीतिक गारंटी भी होते हैं। और भारत इसे अच्छी तरह समझता है।

 ब्रिक्स और डॉलर की चुनौती

ब्रिक्स अब केवल एक संगठन नहीं, एक वैकल्पिक सोच है—डॉलर डोमिनेंस को चुनौती देने की। लेकिन अमेरिका को यह मंजूर नहीं। हॉवर्ड लुटनिक ने ब्रिक्स की आलोचना करते हुए कहा—”डॉलर के समानांतर कोई करंसी या मंच नहीं होना चाहिए, खासकर अगर उसमें भारत हो।” यानी अमेरिका चाहता है कि भारत दुनिया की नई आर्थिक धारा से हटकर सिर्फ पश्चिम के पीछे चले।

मेक इन इंडिया Vs अमेरिका फर्स्ट

मेक इन इंडिया का नारा प्रधानमंत्री मोदी का सपना है। लेकिन अब अमेरिका कह रहा है—”आपका प्रोडक्शन हमारे देश में कीजिए।” क्यों? क्योंकि अमेरिका अपने इंडस्ट्रियल बेस को फिर से खड़ा करना चाहता है। तो क्या मेक इन इंडिया, “मेक फॉर अमेरिका” बन जाएगा? क्या भारत अपनी घरेलू इंडस्ट्री को कमजोर कर देगा ताकि अमेरिकी कंपनियाँ भारत में टैक्स फ्री बिज़नेस कर सकें?

 कॉर्पोरेट्स पर अमेरिका की पकड़

ब आते हैं भारत के कॉर्पोरेट्स पर।  अडानी:

वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक, अडानी ग्रुप की एक कंपनी पर आरोप है कि वह ईरान से पेट्रोकेमिकल प्रोडक्ट्स खरीद रही है—अमेरिका की मंज़ूरी के बिना। अब अमेरिकी न्याय विभाग इसकी जांच कर रहा है। और ध्यान रहे—यह वही अडानी हैं, जिनका नाम राहुल गांधी बार-बार पीएम मोदी के साथ जोड़ते हैं।

अंबानी: 

चुपचाप कतर जाते हैं और ट्रंप से मुलाकात करते हैं—क्यों? अब तक कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं।

बिड़ला:

कुमार मंगलम बिड़ला को अमेरिका में सम्मानित किया जाता है। कारण? 17 सालों में 15 अरब डॉलर का निवेश और 5400 नौकरियाँ। अर्थ ये निकलता है कि अगर भारत के कॉर्पोरेट्स को अमेरिका में बिजनेस करना है, तो अमेरिका के हिसाब से चलना होगा।

 आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा का युद्ध

अमेरिका चाहता है कि भारत अपने डेटा सेंटर, अपने यूज़र्स की जानकारियाँ, और AI की सारी काबिलियत—सीधे अमेरिकी मॉडल में समाहित करे। Starlink आ रहा है। डेटा अमेरिका के पास रहेगा। भारत केवल उपयोगकर्ता बना रहेगा। तो क्या भारत अब डिजिटल उपनिवेश बनने की ओर है?  5 मिलियन डॉलर यानी 40 करोड़ रुपए दो और अमेरिका में रिहायश लो। 

ग्रीन कार्ड अब गरीबों का विकल्प होगा, गोल्ड कार्ड अमीरों का।

क्या भारत अब अपने छात्रों, अपने प्रोफेशनल्स को ये कहेगा—“अगर पैसा है तो अमेरिका जाओ, वरना भारत में बैठो?” अगले महीने, यानी 8-9 जुलाई को भारत और अमेरिका के बीच टैरिफ और ट्रेड समझौते की नई तस्वीर सामने आएगी।

क्या भारत अमेरिका के आगे झुकेगा? या फिर अपनी स्वतंत्र विदेश नीति, आत्मनिर्भर भारत और लोकल फॉर वोकल के नारे को बचाए रखेगा? यही वो क्षण होगा जो तय करेगा—भारत स्वतंत्र निर्णय लेगा या केवल सहयोगी नहीं, लाभार्थी बनकर अमेरिका के पीछे खड़ा रहेगा।

ये वक्त सवाल पूछने का है। भारत की जनता से, सरकार से और कॉर्पोरेट से। क्या हम आत्मनिर्भरता की राह पर चलेंगे या आत्मसमर्पण की? क्या हम मित्रता के नाम पर अपनी नीति छोड़ देंगे? या फिर अमेरिका को यही बताएंगे—”भारत किसी के दबाव में नहीं, अपने बल पर आगे बढ़ता है!”

दोस्तों, ये आपकी सोच, आपकी आवाज़ और आपका लोकतंत्र है—इसे बचाइए, सवाल उठाइए। वीडियो पसंद आए तो शेयर कीजिए, सब्सक्राइब कीजिए और बताइए—आप क्या सोचते हैं, क्या वाकई भारत लाभार्थी बन जाएगा?

धन्यवाद।

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